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स्याद्वादबोधिनी - १६४
ही सपदार्थ का लक्षण है । पदार्थों को अक्षणिक, नित्य मानने पर उनमें क्रमशः एवम् युगपत् प्रर्थक्रियाकारिता का विरोध होने लगेगा, क्योंकि अर्थक्रियाकारिता भावलक्षण है । अर्थात् पदार्थों को अक्षणिक - कूटस्थ नित्य मानने में उनमें क्रम से, अथवा एक साथ अर्थक्रिया होने में विरोध उपस्थित होने से तथा अर्थक्रिया का कर्त्ता होना, पदार्थ का स्वरूप होने के कारण, उस नित्य पदार्थ पृथक् होने वाली अर्थक्रिया अपने द्वारा व्याप्त नित्य पदार्थ की सत्ता को उस पदार्थ से पृथक् कर देगी - अर्थक्रिया का पदार्थ में प्रभाव होने पर पदार्थ का अस्तित्व क्षोण हो जायेगा । इस तरह पदार्थ की अनित्यत्व, क्षणिकत्व सिद्धि होती है ।
नित्य पदार्थ अपनी अर्थक्रिया को क्रम से करने में समर्थ नहीं होता, क्योंकि पदार्थ के प्रयोजनभूत पूर्वकालवर्त्ती कार्य को करने के स्वभाव के विनाश द्वारा पदार्थ के प्रयोजनभूत उत्तरकालवर्ती कार्य को उत्पन्न करने की क्रिया करने की पदार्थ की प्रवृत्ति होती है । पूर्व कार्योत्पादन क्रिया करने के स्वभाव का यदि विनाश न किया गया तो पूर्वकालवर्त्ती कार्य करने की क्रिया का अन्त न होने का प्रसंग उपस्थित हो जाता है । पूर्व कार्योत्पादन क्रिया करने के स्वभाव का विनाश होने पर पदार्थ