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________________ स्याद्वादबोधिनी-१६२ स्वयं लड़कर नष्ट हो जाते हैं तो वह पुण्यशाली राजा बिना प्रयास के ही प्रखण्ड राज्य-सुख का उपभोग कर विजयश्री का वरण करता है। ठीक इसी प्रकार अनेकान्तवाद के विरोधी मत परस्पर खण्डन करते हुए, एक-दूसरे को दोष देते हुए स्वतः परास्त हो जाते हैं फिर एकान्तवादों में समन्वय सूत्र की संस्थापना करने वाला श्रीजिनभाषित अनेकान्तवाद-स्याद्वाद ही सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वमान्य होता है। य एवेति-विश्व के समस्त पदार्थों को सद्रूप होने के कारण नित्य स्वीकार करने वाले नित्यवादियों के मत में क्रमशः अर्थक्रियाकारिता घटित नहीं हो सकती। अतः जो प्रनित्यवादियों ने एकान्त नित्यवादियों के पक्ष में दोष प्रदर्शित किये हैं, वे अनित्य एकान्तवादियों के पक्ष में भी निश्चित रूप से आते हैं-इस बात को दृढ़तापूर्वक सूचित करने के लिए यहाँ 'किल' शब्द का प्रयोग किया गया है। नित्यैकान्तवादियों के मतानुसार सभी पदार्थ सद्रूप होने के कारण नित्य हैं-'सर्वं नित्यं सद्रूपत्वात् ।' क्षणिक पदार्थों में भूत, भविष्यत् और वर्तमान में किसी प्रकार भी अर्थक्रिया सम्भव नहीं है। क्योंकि अपने प्रयोजन
SR No.002335
Book TitleSyadwad Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamvijay Gani
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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