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स्याद्वादबोधिनी-१६१ संक्षेपेणेदं वक्तु शक्यते यत् ते नित्यैकान्तवादिनोऽनित्यैकान्तवा दिनो मिथोविवदमाना ध्वंसं प्रयान्ति । अर्हद्भाषितोऽनेकान्तवादो राजमार्ग इव निष्कण्टकः, न क्वापि दोषः । राजमार्गेण सर्वे सुखं व्रजन्ति । दण्डादिसाहाय्येनान्धा अपि पङ्गवोऽपि । अतो निष्कण्टकोऽनेकान्तवादः परैरपि स्वीकरणीयः सर्वोत्कृष्टत्वात् ।
__ - भाषानुवाद - पुनः कलिकालसर्वज्ञ प्राचार्यप्रवर श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वर जी महाराज अनेकान्तवाद-स्याद्वाद की सर्वोत्कृष्टता प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि नित्य एकान्तवादी तथा अनित्य एकान्तवादी परस्पर आरोप करते हुए शास्त्रहेतुरूपी प्रहार से आहत हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में सर्वज्ञ विभु श्री अर्हद् भाषित अनेकान्तवाद-स्याद्वाद ही सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त कर स्वतः बिना प्रयास के ही विजयो होता है
* श्लोकार्थ-नित्य एकान्तवाद में जिन दोषों का समावेश है वे ही दोष अनित्य एकान्तवाद के पक्ष में भी समान रूप से विद्यमान हैं। ऐसी परिस्थिति में उभयपक्ष के विवाद के कारण अनेकान्त विजयी होता है । क्योंकि जब किसी पुण्यशालो राजा के शत्रु आपस में