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________________ स्याद्वादबोधिनी-१५६ - भाषानुवाद - अनेकान्तवाद समस्त द्रव्य (वस्तु) एवं वस्तु-पर्यायों में विद्यमान है, किन्तु प्रमुख भेदों की अपेक्षा स्यानित्य, स्याप्रनित्य स्यात्सामान्य, स्यात्विशेष, स्यात्वाच्य, स्यात्मवाच्य, स्यात्सत्, स्यात्प्रसत् के रूप में चार भेदों को प्रदर्शित करते हुए कलिकालसर्वज्ञ प्राचार्यप्रवर श्री हेमचन्द्रसूरीश्वर जी महाराज कहते हैं * श्लोकार्थ-हे सर्वज्ञविभो ! जिनेश्वरदेव ! आपने विद्वानों के समक्ष अनेकान्तरूपी सुधा-अमृत का पान करके प्रत्येक वस्तु को कथञ्चित् नित्य, कथञ्चित् अनित्य, कथञ्चित् सामान्य, कथञ्चित् विशेष, कथञ्चित् वाच्य, कथञ्चित् अवाच्य, कथञ्चित् सत्, कञ्चित् असत् रूप से प्रतिपादित किया है। 9 भावार्थ-यद्यपि एकान्तवादी स्याद्वाद को संशयवाद के नाम से पुकारते हैं, किन्तु उनका कथन युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि वे यदि 'स्यात्' पद को क्रियावाचक मानकर 'संभवेत्' अर्थ करते हैं तो ऐसा अर्थ स्याद्वादी को अभीष्ट नहीं है। __ स्याद्वाद में प्रयुक्त 'स्यात्' पद विभक्ति प्रतिरूपक अव्यय है, जिसका अर्थ है-'अनेकान्त-स्याद्वाद।' जैसे
SR No.002335
Book TitleSyadwad Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamvijay Gani
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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