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स्याद्वादबोधिनी-१५३
सप्तभङ्गी। अर्थात् यथार्थ स्थिति यह है कि सापेक्षरीति से एक ही वस्तु-पदार्थ में विधि तथा प्रतिषेध की स्थिति को ही 'सप्तभंगी' कहते हैं।
प्रत्येक वस्तु-पदार्थ अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से सत्रूप और परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से असत्रूप है।
वस्तु-पदार्थ के अस्तित्व और नास्तित्व धर्मों का एक साथ कथन नहीं किया जा सकता। अतः प्रत्येक वस्तु किसी प्रकार से प्रवक्तव्य भी है।
वस्तु-पदार्थ में अस्तित्व और नास्तित्व परस्पर विरुद्ध धर्मों की कल्पना किसी अपेक्षा से ही की जाती है । अतः स्वद्रव्य आदि की अपेक्षा से वस्तु कथंचित् 'अस्ति' तथा पर-द्रव्य की अपेक्षा से 'नास्ति' है। फलतः सप्तभंगी में किसी प्रकार भी उक्त भाङ्ग दोष सम्भव नहीं हैं। श्रीजैनागम-सिद्धान्त के अनुसार वस्तु-पदार्थ में अस्तित्व और नास्तित्व धर्म भिन्न-अपेक्षाओं को लेकर स्वीकृत हैं। जिस अपेक्षा से वस्तु अस्ति रूप है, उसी अपेक्षा से स्याद्वादी वस्तु को नास्ति रूप में कदापि स्वीकार नहीं करते। अतः स्याद्वादी सप्तभङ्गी सर्वथा दोष रहित है ।। २४ ।।