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स्याद्वादबोधिनी-१५२ रूपेणासत्त्वमेव स्यान् न तु सत्त्वं, येन रूपेण चासत्त्वं तेन सत्त्वमेव स्यान्नत्वसत्त्वम्' इति व्यतिकरः ।
अर्थात्-जिस स्वरूप से पदार्थ में सामान्य-अस्तित्व का सद्भाव होता है, उसी स्वरूप से, उसी पदार्थ में विशेष नास्तित्व का सद्भाव होने से तथा जिस स्वरूप से पदार्थ में विशेष नास्तित्व का सद्भाव होता है, उसी स्वरूप से उसी पदार्थ में सामान्य अस्तित्व का सद्भाव होने से व्यतिकर नामक दोष उपस्थित होता है ।
(६) संशय-व्यतिकर नामक दोष प्राने पर वस्तुपदार्थ के सत्त्वरूप या असत्त्वरूप असाधारण धर्म के द्वारा निश्चय करने की शक्ति का अभाव होने के कारण संशय दोष पाता है ।
(७) अप्रतिपत्ति-संशय होने से वस्तु-पदार्थ का सम्यक् परिज्ञान नहीं हो सकता। अतएव अनेकान्तवादस्याद्वाद में अप्रतिपत्ति दोष उपस्थित होता है ।
(८) प्रभाव-वस्तु-पदार्थ का यथार्थज्ञान न होने के कारण वस्तु-पदार्थ की व्यवस्था नहीं बन पाती है । अतएव अनेकान्तवाद-स्याद्वाद में विषय व्यवस्था हानि अर्थात् अभाव नामक दोष पाता है। वस्तुतः प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुनि अविरोधेन विधि-प्रतिषेध-कल्पना