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स्याद्वादबोधिनी-१५१
अथवा-'येन रूपेण सत्त्वं तेन रूपेणासत्त्वस्यापि प्रसङ्गः। येन रूपेण चासत्त्वं तेन रूपेण सत्त्वस्यापि प्रसङ्ग इति संकरः ।' __ अर्थात्-जिस स्वरूप से पदार्थ सामान्य (मस्तित्व) का अधिकरण होता है उसी रूप से सामान्य अस्तित्व और विशेष अस्तित्व का अधिकरण हो जाने से तथा जिस रूप से पदार्थ विशेष (नास्तित्व) का अधिकरण है उसी रूप से विशेष (नास्तित्व) और सामान्य (अस्तित्व) का अधिकरण होने पर संकर नाम का दोष उपस्थित होता है।
' तात्पर्य यह है कि-जिस रूप से (स्वरूप चतुष्टय से) पदार्थ में अस्तित्व धर्म का सद्भाव होता है, उसी रूप से (स्वरूप चतुष्टय से) उसी पदार्थ में नास्तित्व धर्म का सद्भाव होने का प्रसङ्ग पाने के कारण तथा जिस रूप से (परस्पर चतुष्टय से) पदार्थ में नास्तित्व धर्म का सद्भाव होता है, उसी रूप से (परस्पर चतुष्टय से) उसी पदार्थ में अस्तित्व धर्म का सद्भाव होने का प्रसंग उपस्थित हो जाता है।
(५) व्यतिकरः-व्यतिकर नामक दोष का लक्षण प्रस्तुत करते हुए कहा गया है-'येन रूपेण सत्त्वं तेन