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________________ स्याद्वादबोधिनी-१५० (३) अनवस्था-अनवस्था के सन्दर्भ में कहा गया है'अप्रामाणिकपदार्थ-परम्परा परिकल्पना-विश्रान्त्यभावश्चानवस्था । अर्थात् जिस रूप से पदार्थ विधिरूप अस्तित्वरूप सामान्य अधिकरण होता है और जिस रूप से (पर रूप से) वही पदार्थ प्रतिषेधरूप-नास्तित्व विशेष का अधिकरण होता है, उन दोनों रूपों को एक ही रूप से (स्वरूप और पररूप इन दोनों रूपों में से किसी एक रूप से) वह पदार्थ धारण करता है या उन दोनों रूपों से धारण करता है ? इन दोनों में से किसी एक ही रूप से धारण करता है तो एक अभिन्न पदार्थ में दो रूपों की स्थिति के कारण विरोध उपस्थित होता है। स्वरूप और पररूप इन दोनों स्वभावों से सामान्यरूप और विशेषरूप इन दोनों स्वभावों (पदार्थों) को धारण करता है, यदि ऐसा स्वीकार किया जाये तो अनवस्था नामक दोष उपस्थित होता है, क्योंकि उन दोनों स्वरूप और पररूप स्वभावों को अन्य स्वरूप और पररूप इन दोनों स्वभावों से फिर इन स्वरूप और पररूप स्वभावों को अन्य स्वरूप स्वभावों की अप्रामाणिक कल्पना करनी पड़ती है। (४) संकर-'येनात्मा सामान्यस्याधिकरणं तेन सामान्यस्य विशेषस्य च, येन च विशेषस्याधिकरणं तेन विशेषस्य सामान्यस्य चेति संकरः ।'
SR No.002335
Book TitleSyadwad Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamvijay Gani
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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