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स्याद्वादबोधिनी - १४ε
( १ ) विरोध - जिस प्रकार एक अभिन्न पदार्थ में शीत और उष्ण दोनों विरुद्ध धर्मों की स्थिति एक समय में सम्भव नहीं होने से उनमें पारस्परिक विरोध होता है, उसी प्रकार एक अभिन्न वस्तु में अस्तित्व रूप सामान्य धर्म तथा नास्तित्व रूप विशेष धर्म ( परस्पर विरुद्ध धर्मों) का सद्भाव न होने के कारण इन दोनों में परस्पर विरोध होता है ।
" सामान्य - विशेषयो विधिप्रतिषेधरूपयो विरुद्धधर्मयोरेकत्राभिन्ने वस्तुनि असम्भवात् शीतोष्णवदिति विरोध: । "
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( २ ) वैयाधिकरण्य-जो
सामान्यविधिरूप यानी अस्तित्व का अधिकरण है, वही प्रतिषेध रूप 'नास्तित्व' का अधिकरण नहीं हो सकता है । अन्यथा उनके एक होने पर विधि-निषेध की एकरूपता उपस्थित होगी । विधि धर्म एवं प्रतिषेध धर्म 'अस्तित्व और नास्तित्व' का अधिकरण एक होने के कारण अभेद सिद्ध होने लगेगा जब कि दोनों भिन्न हैं । अतः दोनों को अधिकरण भेद से वैयाधिकरण्य नामक दोष आयेगा, क्योंकि कहा भी है'विभिन्नाधिकरणवृत्तित्वं वैयाधिकरण्यम् ।'
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