________________
स्याद्वादबोधिनी - १४८
यतो हि त्रयाणामेव मुख्यत्वात्, एतेषां तु एतद्भङ्गत्रयसमायोजने नैवोत्पादितत्वात् । शेषाणां भङ्गानां संयोगजन्यत्वादेतेष्वन्तर्भाव इत्याकूतम् ।
यत्तु विरोधिभि विरोधवैयाधिकरणानवस्थासंकरव्यतिकर-संशयाप्रतिपत्त्यभावादि दोषाः प्रदर्शिताः तत्तु निर्मूलमेवेति दिक् ।
·
-
भाषानुवाद
* श्लोकार्थ- पदार्थों में सप्तभङ्गीवाद के अनुसार श्रापेक्षिक विरोधाभाव को विधिवत् न जानकर अस्तित्व और नास्तित्व धर्मों के स्थूल रूप से दिखाई देने वाले विरोध से भयभीत होकर अस्तित्व आदि धर्मों में नास्तित्व आदि धर्मों का निषेध करके अपने एकान्तवाद को स्थापित करने वाले, युक्ति मार्ग का अनुसरण करने में श्रसमर्थ एकान्तवादी वस्तुतः न्यायमार्ग से पतित हो जाते हैं ।
भावार्थ - एकान्तवादियों ने सप्तभङ्गी - न्याय में क्रमशः आठ दोष उद्भावित किये हैं- ( १ ) विरोध, (२) वैयाधिकरण्य, (३) अनवस्था, (४) संकर, (५) व्यतिकर, (६) संशय, (७) अप्रतिपत्ति, और (८) विषयव्यवस्था हानि ( प्रभाव ) ।