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स्याद्वादबोधिनी-१४५
उभयविध नयों का अप्राधान्य है। जिस समय वस्तुपदार्थ का स्वरूप एक नय की अपेक्षा से कहा जाता है, उस समय दूसरा नय सर्वथा निरपेक्ष नहीं रहता-यह बात पूर्व में कही जा चुकी है, किन्तु जिस नय की जहाँ विवक्षा होती है, वह नय वहाँ प्रधान होता है और जिस नय को जहाँ विवक्षा नहीं होती, वहाँ वह गौण रूप में रहता है।
प्रथम भंग में जीव के अस्तित्व की प्रधानता है, द्वितीय भंग में नास्तित्व की मुख्यता है, अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्मों की प्रधानता से जीव का एक साथ कथन करना सम्भव नहीं है; क्योंकि एक शब्द से अनेक गुणों का निरूपण नहीं हो सकता। अतः एक साथ अस्तित्व और नास्तित्व उभयविध धर्मों की अपेक्षा जीव कथंचित् प्रवक्तव्य ही है ।
(५) स्यादस्ति च प्रवक्तव्यश्च जीवः-जीव कथंचित् अस्तिरूप और प्रवक्तव्य रूप है। प्रकृत नयभङ्ग में द्रव्याथिकनय की प्रधानता और द्रव्याथिक-पर्यायाथिक की अप्रधानता भी है। किंचित् द्रव्यार्थ या पर्यायार्थ विशेष के आश्रय से जीव अस्ति स्वरूप है तथा द्रव्यसामान्य और पर्यायसामान्य अथवा द्रव्यविशेष और पर्याय