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________________ स्याद्वादबोधिनी-१४४ प्रभाव की अपेक्षा को मुख्य मानकर नास्ति रूप है तथा स्वसत्ता के भाव की अपेक्षा गौण रूप में अस्ति रूप है। यदि पदार्थों में परसत्ता का प्रभाव न हो तो समस्त पदार्थ एक रूप हो जायेंगे। यह पर-सत्ता का प्रभाव अस्तित्व रूप की भाँति स्वसत्ता के भाव की अपेक्षा रखता है। कोई भी पदार्थ सर्वथा भाव अथवा सर्वथा प्रभाव रूप नहीं हो सकता। अतः प्रत्येक पदार्थ को भाव एवं प्रभाव सापेक्ष स्वीकार करना चाहिए। (३) स्यादस्ति-नास्ति (च) जीवः-जीव किसी अपेक्षा से अस्ति और नास्ति स्वरूप है। इस भङ्ग के माध्यम से द्रव्यार्थिक एवं पर्यायाथिक उभयनयों का प्राधान्य सूचित है। जिस क्षण वक्ता के अस्ति और नास्ति दोनों धर्मों के कथन की विवक्षा होती है, उस क्षण-एतत् प्रकारक तृतीय भङ्ग का प्रयोग होता है । यह नय भी कथंचित्रूप है। यदि पदार्थ के स्वरूप को सर्वथा वक्तव्य मानकर किसी अपेक्षा से भी प्रवक्तव्य न स्वीकार करें तो एकान्तवाद पक्ष में अनेक दोष उपस्थित होते हैं। (४) स्यादवक्तव्यो जीवः-जीव कथंचित् प्रवक्तव्य ही है। इस चतुर्थ भङ्ग में द्रव्यार्थिक एवं पर्यायाथिक
SR No.002335
Book TitleSyadwad Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamvijay Gani
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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