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स्याद्वादबोधिनी-१४२
को पृथक् से द्रव्य स्वीकार नहीं किया है, किन्तु सिद्धान्तप्रागमप्रमाण 'गोयमा ! छ दव्वापण्णत्ता' के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि 'षट् द्रव्यों को स्वीकार करना'. यह युक्तिसंगत एवं सिद्धान्त-मागम सूत्र-सम्मत है ।
याकिनीमहत्तराधर्मसूनु श्री हरिभद्रसूरीश्वर जी महाराज ने भी श्रीमलयगिरि टीका में उस सन्दर्भ में विशद प्रकाश डाला है।
शंका यह होती है कि परमकारुणिक सर्वज्ञविभु श्री अरिहन्त परमात्मा ने विश्वकल्याण की सद्भावना से जब सभी को समानरूप से सप्तभंगीनय (स्याद्वाद) बताए तो अन्य मलवादी इसके गहन रहस्य को क्यों नहीं समझ पाये तथा उन्होंने इसे स्वीकार क्यों नहीं किया ? इसका समाधान यह है कि-मनादिकाल से मिथ्यादर्शन रूप अविद्या के वशीभूत होने के कारण तथा पक्षपात बुद्धि के कारण वे सत्-असत् में विवेक रखने में असमर्थ रहे ।
सर्वज्ञविभु श्री अरिहन्त-जिनेश्वर भगवन्त द्वारा प्ररूपित सप्तभङ्गीनय को हठवाद रहित सत्-असत् विवेकी पुरुष (विद्वान्) ही जानने में समर्थ हैं। श्रीभागमशास्त्र में कहा भी है