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स्याद्वादबोधिनी - १३६
नित्याऽनित्यादयोऽनेके धर्मा यस्मिन् तत् वस्तु' | एक ही समय में नित्य और श्रनित्यादि अनेक धर्म जिसमें रहते हैं, उसे 'वस्तु' कहते हैं । 'अनन्तधर्मात्मकमिति' अनेक धर्म अर्थात् जीव प्रजीव, नित्यत्व-अनित्यत्व अपेक्षा रूप से विद्यमान हैं जिसमें, उसे अनेकधर्मात्मक कहते हैं । वह स्थिति बहुव्रीहि समास करने पर स्पष्ट हो जाती है । उक्त पद में बहुव्रीहि समास है ।
शब्दशक्ति स्वभाव के कारण यहाँ श्रात्मा शब्द 'स्वरूप' का वाचक है । श्रीजैन दर्शन - जैनमत में सर्वत्र स्याद्वादात्मक स्थिति प्रवारित रूप से प्रवर्तमान है । 'स्यात्' पद से विभक्ति प्रतिरूपक प्रव्यय है । यदि उसे क्रियावाचक मानें तो समास सम्भव न होगा । क्योंकि कहा भी है- नाम का नाम ( प्रतिपदिक) के साथ समास होता है, तिङ्न्त के साथ नहीं । 'अनन्तधर्मात्मक' शब्द में आत्मा शब्द से अनन्त पर्यायों में विद्यमान नित्य धर्म का अभिप्राय प्रगट होता है । इसीलिए उत्पाद, व्यय श्रौर ध्रौव्य ही 'सत्' है अर्थात् द्रव्य का लक्षण है । तात्पर्य यह है कि यदि पदार्थों में अनन्त धर्म स्वीकार नहीं करें तो वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती है । इसीलिए प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक / अनन्त धर्मात्मक है । जो