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________________ स्याद्वादबोधिनी-१२७ आप उनका ज्ञान कैसे कर पायेंगे । अनुमान प्रमाण स्वीकार करने वाले दार्शनिक तो अपने मत की पुष्टि कर सकते हैं, किन्तु प्राप तो स्वयं भी उसकी अवगति नहीं कर सकते, दूसरों को प्रबोधित करना (ज्ञात करवाना) तो दूर की बात रही। दूसरी बात यह है कि आपने अपने पूर्वजों को नहीं देखा है । फिर उनके बारे में पाप कैसे यथार्थ रूप से कह सकते हैं। प्रत्यक्ष तो उनका हुअा नहीं है । अस्मिन्निति-इस संसार में जो धनी, कुछ दोन (गरीब), कुछ दानी, कुछ भिखारी, कुछ रोगी हैं। उनका क्या कारण है ? हमारे मत में तो धर्म से सुख तथा अधर्म (पाप) से दुःख की प्राप्ति होती है। जो व्यक्ति पूर्वजन्म में अत्यधिक पुण्यशाली रहा, वह अागामी जीवन में अतिशय सुखो होता है। अन्तराय के बिना सदा अनुभव करने के कारण ऐसा अनुमान सम्भव है । चार्वाक प्रात्मा को स्वीकार न करते हुए कहता है कि, जिस प्रकार शराब (दारु) आदि में मादक शक्ति पैदा होती है, वैसे ही पृथिवी आदि पदार्थों से 'चैतन्य' की उत्पत्ति होती है। पञ्चभूत रूपी शरीर के विनाश हो जाने पर चैतन्य भी विनष्ट हो जाता है। अतः प्रात्मा के अभाव में धर्म, अधर्म, पुण्य और पाप की अवस्था भी सिद्ध नहीं होती है। अतः श्रोजैनदार्शनिकों का कथन यह
SR No.002335
Book TitleSyadwad Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamvijay Gani
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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