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स्याद्वादबोधिनी-१२६
'प्रमाणनयतत्त्वालोक' में भी लक्षण प्रस्तुत किया गया है-'अनुमानं द्विविधं स्वार्थ परार्थं च । तत्र हेतुग्रहण सम्बन्ध-स्मरण कारणं साध्यविधानं स्वार्थम् । पक्षहेतुवचनात्मकं परार्थानुमानमुपचारात् । [३/१०/२३ प्रमा०]
अर्थात् जिसके द्वारा अविनाभाव सम्बन्ध के स्मरण के साथ ही देश, काल और स्वभाव सम्बन्धी दूरस्थ पदार्थों का ज्ञान होता है, उसे स्वार्थानुमान कहते हैं तथा परार्थानुमान में अन्य को समझाने के लिए (अनुमान करवाने के लिए) पक्ष और हेतु का प्रयोग किया जाता है। अनुमान के बिना कोई दूसरे अभिप्राय को नहीं समझ सकता। अतएव अनुमान आदि को प्रमाण न स्वीकार कर मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को स्वीकार करने वाले चार्वाकों को तो प्रामाणिक पुरुषों के समक्ष बोलने का दुस्साहस ही नहीं करना चाहिए।
चार्वाक पूर्णतः नास्तिक है, क्योंकि परमात्मा-परमेश्वर में उसकी आस्था नहीं है। ऐसे नास्तिक का प्रतिपादन कितना हास्यास्पद है।
सारांशतः चार्वाकों के प्रति हमारा प्रश्न यह है कि जो पदार्थ देशान्तर में विद्यमान है तथा आप उन्हें नहीं प्रत्यक्ष कर पा रहे हो तो प्रत्यक्षलभ्य न होने के कारण