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स्याद्वादबोधिनी-११२ अन्य ज्ञानक्षण के सुखी होने का प्रयत्न नहीं करेगा, क्योंकि पूर्व और पर ज्ञानक्षणों में पारस्परिक कोई सम्बन्ध नहीं रह सकता। यदि सब क्षणों में सुख-दुःख पहुँचाने वाली संतान को स्वीकार करें तो वह संतान ज्ञानक्षणों के अतिरिक्त कोई पृथक् वस्तु है तो उसे आत्मा ही कहना चाहिए । यदि संतान भी अवस्तु है तो वह अकार्यवादी है । क्षणिकवादियों के मत में अन्य ज्ञान क्षणबद्ध होता है तदन्यज्ञान क्षण की मुक्ति होती है। अतएव मोक्ष के प्रभाव का प्रसंग समुपस्थित हो जाता है ।
यद्यपि मोक्ष हमने नहीं देखा है तथापि अनन्तज्ञानियों ने उसके स्वरूप का प्रतिपादन किया है । प्रागमों के दिव्य आलोक में हम भी उस मोक्ष तत्त्व की अवगति करने में समर्थ होते हैं। हस्तामलकवत् समस्त तत्त्वदर्शी (सर्वज्ञ) यथार्थ प्रस्तुत करते हैं।
'स्मृतिभङ्गदोषमिति' । पूर्व अनुभूत पदार्थ की ही दृढ़तर संस्कारवश कालान्तर में स्मृति होती है। क्योंकि कहा भी है, 'संस्कारमात्रजन्यं ज्ञानं स्मृतिः'। जीवात्मा ने पूर्व में जो अनुभूति की है, उसको पुनः उद्बुद्ध संस्कारवश जो ज्ञान होता है-वह स्मति पदार्थ है। सम्प्रति इन्द्रियसन्निकर्ष के बिना भो 'मैं स्मरण करता हूँ' उस