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स्यावादबोधिनी-१११ पर 'भवः' पद की सिद्धि होती है। 'भवः' का तात्पर्य है दृश्यमान विश्व-जगत् । बौद्धमत में तो उत्पत्ति क्षण में भी उत्पन्न होते ही सभी पदार्थ मौलिक रूप से विनष्ट हो जाते हैं। तब भला उनके मत में तत् क्षण विनाश होने के कारण 'संसार' की स्थिति कैसे सम्भव है ? वैसे फिर संसार देखने योग्य है। चाक्षुष विषयीभूत है। विनष्ट पदार्थ को आँखों से हम नहीं देखते अपितु पूर्वजों से उनके सन्दर्भ में सुनते हैं। ग्रन्थों का अध्ययन करके जानते हैं । मेरा तो कहना यह है कि यदि भव का विनाश ही हो जाता है (बौद्ध मत में) तो फिर तदन्तरवर्ती क्षणिकवादी कैसे शेष रहते हैं, अपना क्षणिकवाद प्रस्तुत करने के लिए ? यह तृतीय दोष है । ___'प्रमोक्षभङ्गम्। बौद्ध मत में मोक्षभङ्ग नामक यह चतुर्थ दोष भी उपस्थित है, क्योंकि कर्मों का समूलोच्छेद रूप ही प्रमोक्ष है। मोक्ष को सम्प्राप्त प्रात्मा कदापि संसार-बन्ध में नहीं पाता है। वह मुक्त सदा प्रानन्द स्वभाव में रमण करता है ।
बौद्ध मत में जब प्रात्मा ही नहीं है तो परलोक में सुखी होने के लिए कौन कोशिश करेगा? क्षण मात्र निरन्वय विनाश को प्राप्त होने वाला संसारी ज्ञानक्षण भी