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स्याद्वादबोधिनी-११० के मतानुसार तो जल में लकीर खींचने के समान वह उपकृति तत्क्षण ही विनष्ट हो जाती है तो फिर 'अमुकव्यक्ति परोपकारी था' ऐसा व्यवहार कैसे हो सकेगा ? यह : क्षणिकवादी के मत में प्रथमदोष है ।
___ 'प्रकृतकर्मेति'-यह दूसरा दोष इस प्रकार है किनित्यात्मवादियों के मत में तो जीव, जब तक मुक्त नहीं होता तब तक स्वकृत शुभाशुभ कर्मों को वह (स्वयं) भोगता है। यह नियम है, किन्तु दूसरे के द्वारा किये गये कर्म को किसी अन्य को भोगने के लिए बाध्य होना पड़े तो यह सर्वथा नियमविरुद्ध होगा। ऐसा होने पर विश्वजगत् के प्रति कौन अनुरक्त होगा? दूसरे के द्वारा कृत कर्म के फल को भोगने में दोष तो सुस्पष्ट है कि, चोरी कोई करे और उसी अपराध के लिए अन्य जेल में जाये । यह बात नियमसंगत नहीं है। अपराधी को दण्ड प्राप्त हो-नियमतः यही होना चाहिए। अतः क्षणिकवादी बौद्ध के मत में यह दूसरा दोष है ।
"भवभङ्गदोषम्'। जिसमें मनुष्यादि उत्पन्न होते हैं, जन्म लेते हैं, वह भव कहलाता है। यह 'भव' शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य स्वरूप है। उवर्णान्त 'भू' धातु से 'ऋदोरप्' सूत्र से अप् प्रत्यय गुण अवा देश, विभक्ति कार्य होने