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स्याद्वादबोधिनी - १०६
सन्तानमपरं पदार्थं मत्वा एक सन्तानस्य अपरेण सन्तानेन कार्य-कारणभावे स्वीकृतेऽपि सन्तानक्षणानां परस्परभिन्नता तु तादवथ्यैवेति । सम्पूर्णक्षणानां परस्परं भिन्नत्वात् ।
भाषानुवाद
* श्लोकार्थ - सर्वज्ञविभु हे जिनेश्वरदेव ! भवदीय प्रतिपक्षी बौद्ध क्षणिकवाद की संस्थापना करके कृतकर्मों के फल को न भोगने, प्रकृत कर्मों के फल को भोगने के लिए बाध्य होने, परलोक के विनाश, मोक्ष के नाश, स्मरण शक्ति का अभाव आदि दोषों की उपेक्षा करते हुए अपने क्षणिकवाद की स्थापना करने का दुस्साहस करते हैं । यह कितना हास्यास्पद है !
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भावार्थ - ' कृतप्रणाशेति' । द्वन्द्व समास के अन्त में पृथक् से योजित पद का द्वन्द्व समास घटित समस्त पदों के साथ अन्वय होता है । यह व्याकरणशास्त्र का नियम है । अतः पूर्वोक्त दोषों में प्रत्येक पद के साथ 'दोषम् ' पद की योजनाअन्वय- प्रस्तुत रूप से की गई है ।
प्रत्येक व्यक्ति यह चाहते हुए जनकल्याण करता है कि मेरी उपकृति चिरकालस्थायिनी रहे, जिससे अन्य लोग भी जानें कि वे परोपकारी थे ।
क्षणिकवादी बौद्ध