SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्याद्वादबोधिनी-१०४ [४] प्रमाण का प्रभाव होने पर प्रमिति सम्भव नहीं। अतः सर्वथा (एकान्तरूप से) शून्य मानना ही तात्त्विक (वास्तविक) है। अनुमान और अनुमेय का व्यवहार बुद्धिजन्य है। वस्तुतः बुद्धि के बाहर सत् और असत् कोई वस्तु नहीं है। अत एव न सत्, न असत्, न सत्-असत् और न सत्-असत् का अभाव रूप ही वास्तविक है । __श्रीजैनदर्शन-जनमत के अनुसार यह मत समीचीन नहीं है, क्योंकि प्रमाता, प्रमेय और प्रमिति, प्रत्यक्ष अनुमान इत्यादि प्रमाणों से सिद्ध होते हैं। 'मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ' इत्यादि वाक्यों में 'अहम्' से प्रमाता (आत्मा) की सिद्धि होती है। साथ ही बाह्य पदार्थों के अनुभव से वासना बनती है। अतः प्रमेय को स्वीकार करना नितान्त अपेक्षित है। प्रमेय की सिद्धि होने पर प्रमाण को मानना भी आवश्यक है। जैसे कुठार से काटने की क्रिया होती है, वैसे ही जानने की क्रिया का भी कोई कारण अवश्य होना चाहिए। पदार्थ को जानते समय पदार्थ सम्बन्धी अज्ञान का विनाश होना ही प्रमाण का साक्षात् फल है । अतः प्रमिति को भी आवश्यक रूप से स्वीकार करना चाहिए।
SR No.002335
Book TitleSyadwad Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamvijay Gani
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy