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स्याद्वादबोधिनी-१०२ करने की अभिलाषा (इच्छा) भी करे तो शून्यवादरूपी कृतान्त कुपित हो जाता है ।
जैसे स्वामी की आज्ञा की अवहेलना करने वाले नौकर पर स्वामी क्रोध करता है, कभी स्वेच्छाचारी पर अधिक कुपित होकर वह उसका सर्वस्व छीन लेता है। ठीक इसी प्रकार शून्यवादी कृतान्त बौद्ध पर क्रोधित होकर उसकी सकल सामर्थ्य को क्षीण कर देगा।
'प्रमातु योग्यं प्रमेयम्' यहाँ शाब्दिक संरचना इस प्रकार है-'प्र' उपसर्गपूर्वक 'माङ्' माने शब्दे च धातु से 'अचो यत्' सूत्र से कर्म में यत् प्रत्यय तथा 'ईद्याति' सूत्र से एत्व कर के विभक्ति कार्य करने पर 'प्रमेयम्' पद की सिद्धि होती है । __ वाक्यपदीयकार भर्तृहरि ने कहा है-'अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते।' समस्त प्रागम तथा शास्त्र शब्दों से समृद्ध हैं। गीता में शास्त्रों की प्रामाणिकता के प्रसंग में कहा गया है कि यदि तुम्हें किसी कार्यप्र-कार्य (कर्तव्य, अकर्तव्य) के विषय में किसी प्रकार का भी सन्देह हो तो तुम्हें आगम-शास्त्रों को प्रमाण मानना चाहिए। 'तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते, कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।'