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स्याद्वादबोधिनी-१०१
यदि अन्य ताकिकों की भाँति प्रतिष्ठा प्राप्त करने की कामना से बौद्ध भी किसी प्रमाण को मानने की चेष्टा करें तो शून्यतारूपी स्वकीय सिद्धान्त ही यम बनकर उन पर कुपित हो जायेगा।
9 भावार्थ-हे सर्वज्ञविभो जिनेश्वरदेव ! आपके मत के प्रति ईर्ष्याभाव रखने वालों ने जो कुछ भी कुमति रूपी नेत्रों से जाना है वह मिथ्या है, उपहास योग्य है ।
प्रमाण अनेक प्रकार के हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शाब्द के भेद से चार प्रमाण नैयायिक को अभीष्ट हैं । प्रभाकर के मत में अर्थापत्ति भी प्रमाण है, सम्बन्ध को भी प्रमाण रूप में स्वीकार किया गया है। श्रीजैनदर्शनजैनमत में दो ही प्रमाण स्वीकृत हैं-प्रत्यक्ष एवं परोक्ष । अवधिज्ञान से लेकर केवलज्ञान पर्यन्त तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं । तथा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान ये दोनों ज्ञान परोक्ष हैं ।
वस्तुतः, प्रायः समस्त दार्शनिक प्रमाणों को स्वीकार करके अपने-अपने पक्ष का समर्थन करते हैं तथा संसार में प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। शून्यवादी बौद्ध तो प्रमाण को अंगीकार ही नहीं करता तो भला वह संसार में प्रतिष्ठा कैसे प्राप्त कर सकता है ? यदि वह प्रमाण को स्वीकार