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स्याद्वादबोधिनी-१०० विषयकाज्ञाननाशः एष प्रमाणस्य साक्षात् फलम् । अतएव प्रमितिरपि स्वीकार्या ।
शून्यवादिनः प्रमात्रादीन् प्रमाणेन अप्रमाणेन वा नैव साधयितु शक्नुवन्ति । यतो हि शून्यवादिनां मते स्वयं प्रमाणस्याप्यवस्तुत्वात् । अतः शून्यवादिनां मतं निरस्तम् ॥ १७ ॥
- भाषानुवाद - कलिकालसर्वज्ञ प्राचार्य श्रीमद् हेमचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज शून्यवादी सुगतमत का खण्डन करते हुए कहते हैं कि सभी तार्किक प्रमाण से प्रमेय की सिद्धि स्वीकार करते हुए अपने-अपने पक्ष को सिद्ध करते हैं, किन्तु शून्यवादी बौद्ध तो बिना प्रमाण के ही अपने पक्ष को सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। इस भावना से लिखा है कि'विना प्रमाणम् ।'
* श्लोकार्थ-अन्य तार्किक प्रमाणों को स्वीकार करते हैं। अतः उनके मत की सिद्धि सम्भव है, किन्तु शून्यवादी बौद्ध बिना प्रमाण के अपने मत की सिद्धि नहीं कर सकते।