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________________ स्याद्वादबोधिनी-ε३ अतः प्रमाण तथा प्रमेय एक नहीं हैं । 'राहोः शिरः ' को छेदकर प्रायः षष्ठी विभक्ति सर्वत्र भेदिका होती है । यद्यपि इस विवेचनमात्र से ही श्लोकार्थ की गतार्थता हो जाती है । तथापि जिज्ञासुनों के लिए कुछ और विवेचन अपेक्षित है श्रीन्यायबिन्दु ग्रन्थ के सूत्र 'अर्थसारूप्यमस्य प्रमाणम् । तद्वशार्थप्रतीतिसिद्धेः ' -अर्थ के साथ होने वाली समानरूपता के कारण अर्थनिर्णय की सिद्धि हो जाने से अर्थ के साथ होने वाली समानरूपता प्रमाण है । उक्त सूत्र का विवरण प्रस्तुत करते हुए धर्मोत्तर ने कहा है कि - जिस कारण विज्ञान में नील (नीलवर्ण पदार्थ ) का प्रतिभास होता है, उस कारण नील की प्रतीति होती है । जिन चक्षु प्रादि इन्द्रियों से ज्ञान की उत्पत्ति होती है, उन इन्द्रियों के अधीन होने से इन्द्रियजन्य वह ज्ञान 'नीलपदार्थ का यह ज्ञान है ।' इस प्रकार संवेदन नहीं कर सकता, किन्तु अनुभूयमान नीलपदार्थ के द्वारा सदृश ज्ञान (नील सदृश ज्ञान ) नीलपदार्थ का ज्ञान है । ऐसा संवेदन किया जाता है ।
SR No.002335
Book TitleSyadwad Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamvijay Gani
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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