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स्याद्वादबोधिनी - ९२
प्रमारण के विषय में सभी दार्शनिकों की स्पष्ट उक्ति है कि-प्रमाण परिच्छेदक होता है । बौद्ध मत में परिच्छेदक प्रमाण और प्रमाणरूप फल अभिन्न है, पृथक् नहीं । श्री जैनदर्शन का कथन है कि यह बौद्ध मन्तव्य ठीक नहीं है ।
यद्यपि कार्य कारण की एकाधिकररणता भी है तथापि उनकी एकता नहीं है । जैसे घट की उत्पत्ति के समय चक्र, चीवर, दण्ड, कुलाल आदि का संयोग होने पर भी उनकी पार्थकय प्रतीति स्फुट रूप से होती है । एक अथवा सर्वथा अभिन्न मानने पर उनका कार्य कारण भाव भी नहीं बन सकता ।
मातृ-पितृ संयोग से पुत्रोत्पत्ति होती है, किन्तु जब उसका संयोग हो तब-तब पुत्रोत्पत्ति नहीं होती । यदि ऐसा होने लगे तो पृथ्वी पर पैर रखने की जगह भी न मिले । जैसे - पिता और पुत्र में भिन्नता दृग्गोचर होती है, वैसे ही प्रमाण और प्रमाण फल के विषय में भी भिन्नता ( पृथक्ता ) जाननी चाहिए ।
जिससे वस्तुनिष्ठत्व प्रमा (बुद्धि) का विषय बनता है - उसे प्रमाण कहते हैं । 'घट' तथा उसका फल जलाहरणादि एकाधिकरणवृत्ति होते हुए भी पृथक् है ।