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स्याद्वादबोधिनी-६४
यहाँ प्रमाण और प्रमाणफल में जन्य-जनकभाव (कार्य-कारणभाव) है। जिसका कारण है-ऐसा साध्यसाधन भाव नहीं है। जिससे एक वस्तु में विरोध उत्पन्न हो, किन्तु यहाँ व्यवस्थाप्य-व्यवस्थापक (निश्चयनिश्चायक) रूप से साध्य-साधन भाव है। अतः एक ही वस्तु का किंचित् प्रमाणरूप होने में और किंचित् प्रमाणफलरूप होने में विरोध नहीं आता है। सारूप्य उस ज्ञान (नील पदार्थ ज्ञान) का निश्चय करने में हेतु है, और नील पदार्थ का ज्ञान व्यवस्थाप्य है।
बौद्ध धर्मोत्तर का यह कथन भी समीचीन नहीं है क्योंकि निरंशज्ञान क्षण में (बौद्ध मत के अनुसार प्रत्येक पदार्थ क्षणिक है ।) घट को केवल 'घट' न कहकर घटक्षण कहते हैं। इसलिए यहाँ भी ज्ञान क्षण से ज्ञान की क्षणिकता समझने पर व्यवस्थाप्य-व्यवस्थापक रूप दो स्वभाव नहीं बन सकते और व्यवस्थाप्य-व्यवस्थापक भाव का सम्बन्ध दो पदार्थों में रहता है।
अतः वह एक निरंश ज्ञानक्षण में नहीं रह सकता तथा ज्ञान का जो अर्थसारूप्य है वह ज्ञान की अर्थाकारिता है। यह ज्ञान का अर्थसारूप्य निश्चय रूप है या अनिश्चय रूप है ?