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द्वारा अपने सम्मुख दोनों करों द्वारा धरे हुए वज्र के थाल में से चूर्ण मुष्टि ग्रहण करते हैं। इस वक्त देवता दिव्य वाजिन्त्रनाद तथा गीत-गानादि बन्द करते हैं। इससे वहां पर सम्पूर्ण मौन छा जाता है। भगवन्त, श्रीइन्द्रभूति आदि ग्यारह गणधरों को द्रव्य, गुण और पर्याय का प्रतिपादन करने वाला, तीर्थ के योग्य जीवों को प्राप्त कराने वाली अनुज्ञा करते हुए उस दिव्य चूर्ण को क्रमशः ग्यारह गणधरों के मस्तक पर डालते हैं। उसी समय देवता भी चूर्ण, पुष्प और गन्ध आदि की वृष्टि उन ग्यारह गणधर भगवन्तों पर करते हैं। बाद में ग्यारह गणधरों में दीर्घायुषी अर्थात् सबसे विशेष आयुष्यवन्त श्री सुधर्मा स्वामीजी होने से उन्हीं को भगवन्त ने समस्त मुनिगण की अनुज्ञा की। अर्थात् प्रभु ने श्री सुधर्मास्वामी को मुनि समुदाय में अग्रेसर स्थापित कर उन्हीं को गण की अनुज्ञा दी।
प्रथम गणधर श्रीइन्द्रभूति मुख्य रूप में रहे और पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामीजी दीर्घायुषी होने से सर्व साधुसमुदाय के कर्णधार बने ।
(वर्तमान काल में श्री महावीरस्वामी भगवन्त के
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