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________________ इन पर चिन्तन-मनन करने में सर्वज्ञ प्रभु श्री महावीर भगवान के मुख से उच्चारित ये प्रत्युत्तर, अपने पूर्वभव में उपार्जित गणधर नामकर्म का पुण्योदय तथा प्रौत्पातिकी आदि बुद्धि इत्यादि विशिष्ट कारणों के संमिलन से उनके ज्ञानावरणीय कर्म का जबरदस्त भारी क्षयोपशम हुआ। अर्थात्-पूर्वकी की हुई धर्म की उत्तम आराधना के बल से तथा 'त्रिपदी' प्राप्त करने के योग से छद्मस्थावस्था में जितने श्रुतज्ञान की सम्भावना हो सकती थी उतना सम्पूर्ण श्रुतज्ञान मात्र एक अन्तर्मुहूर्त में ही श्रीइन्द्रभूत्यादि ग्यारहों की प्रात्मा में प्रगट हो गया। इसके बल से इन ग्यारह गणधरों ने एक अन्तर्मुहूर्त में ही द्वादशाङ्ग श्रुतज्ञान की रचना की। अर्थात् सम्पूर्ण 'द्वादशाङ्गी' की रचना की। वही द्वादशाङ्गी पागम है, उसी के अन्तर्गत चौदह पूर्वो की रचना जाननी। उसी समय भगवान भी ग्यारह जनों को द्वादशाङ्ग श्रुत की अनुज्ञा देने के लिये तथा गणधर पद पर स्थापित करने के लिये तैयार हुए। उस समय श्रीशक्रेन्द्र दिव्य चूर्ण से भरे हुए वज्रमय थाल को लेकर आया और प्रभु के पास खड़ा रहा। ये ग्यारह गणधर भी विनयपूर्वक प्रभु के पास आकर अपना मस्तक नमाकर और अञ्जलि जोड़कर क्रमशः खड़े रहे। बाद में भगवान सिंहासन से खड़े होकर श्रीशकेन्द्र महाराजा ( १४२ )
SR No.002334
Book TitleGandharwad Kavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram
Publication Year1987
Total Pages442
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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