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इस प्रकार गौतम गोत्र वाले पहले श्रीइन्द्रभूति से लेकर ग्यारहवें श्रीप्रभास पर्यन्त ग्यारह विप्र पण्डितों ने अपने चार हजार चार सौ शिष्यों सहित सर्वज्ञ विभु श्री महावीर भगवान के पास पारमेश्वरी प्रव्रज्या-भागवती दीक्षा स्वीकार कर ली। अर्थात् कुल ४४११ ब्राह्मणों ने दीक्षा ग्रहण की। उनमें मुख्य ग्यारह विप्र पण्डित श्रमण भगवान महावीर परमात्मा के शिष्य बने। ये ग्यारह विद्वान् पण्डित सच्चे सर्वज्ञ श्री महावीर भगवान का शिष्यपना प्राप्तकर तत्काल ही तत्त्व जानने के अर्थी बने। ग्यारहों ही दीक्षित विप्र मुनिवर पुन: प्रभु को वन्दन कर विनयपूर्वक “भयवं किं तत्तं ?" -'भगवन् तत्त्व क्या है ?' ऐसा प्रश्न तीन बार पूछते हैं । विश्ववंद्य विश्वविभु सर्वज्ञ श्री महावीर भगवन्त एक-एक बार के प्रश्न के प्रत्युत्तर में क्रमश: "उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा"-'सर्व पदार्थ वर्तमान पर्याय रूप में उत्पन्न होते हैं, पूर्व के पर्याय रूप से नष्ट होते हैं तथा मूल द्रव्य रूप में ध्र व-नित्य रहते हैं' अर्थात्-जगत् उत्पन्न होता है, नष्ट होता है तथा ध्र व रहता है; ऐसा उपदेश देते हैं। इस विश्व के समस्त पदार्थ उत्पत्ति, स्थिति और विनाश स्वभाव वाले हैं। ऐसा श्रीइन्द्रभूत्यादि ग्यारह गणधरों ने बराबर समझ लिया ।
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