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विप्र पण्डित ने अपने सर्वज्ञपने के अभिमान को तिलांजलि दी और सच्चे सर्वज्ञ विभु श्रीमहावीर भगवान का शिष्य बनने का निर्णय किया । उनके तीन सौ छात्रों ने भी उनके साथ में ही दीक्षित होने की तैयारी की ।
दीक्षा पाने के
छिन्न सन्देह - संशय वाले ऐसे ग्यारहवें श्रीप्रभास विप्र भी अपने तीन सौ शिष्यों के साथ प्रभु के पास प्रव्रजितदीक्षित हुए । साथ ही उन्होंने प्रभु की तीन प्रदक्षिणा पूर्वक 'भगवन् ! किं तत्त्वम् ?' इस प्रकार तीन बार पूछा । भगवन्त ने भी क्रमशः " उपन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा" अर्थात् - सर्व पदार्थ वर्त्तमान पर्याय रूप में उत्पन्न होते हैं, पूर्व के पर्याय रूप से नष्ट होते हैं तथा मूल द्रव्य रूप में ध्रुव नित्य रहते हैं । ऐसा उपदेश दिया ।
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इस तरह सर्वज्ञ विभु श्रीमहावीर परमात्मा के मुँह से 'त्रिपदी ' सुनकर गरणधर श्रीप्रभास ने एक ही अन्तमुहूर्त में सम्पूर्णपने ' श्रीद्वादशाङ्गी' की अलौकिक - अत्युत्तमअनुपम रचना की ।
॥ इति श्री गणधरवादे ग्यारहवें गरणधर श्री प्रभास का संक्षिप्त वर्णन |
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