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तू पुण्य के फल को सुख कहता है। यही तुम्हारा भ्रम है। वस्तुतः पुण्य का फल भी दुःख ही है। क्योंकि उसमें भी कर्म का उदय तो है ही। तो जो कर्मजन्य है उसमें दुःख होगा ही। संसार जिसे सुख कहता है वह एक जाति का व्याधि-प्रतिकार है। जैसे-किसी को मीठी खुजली चले । उसे खुजलाते समय आनन्द होता है, किन्तु बाद में वही व्याधिजन्य है। वास्तव में तो वह दुःख ही है, सुख का तो मात्र आभास है। अविवेक के कारण ही सांसारिक सुख को जीव सुखाभास मानता है । जबकि मोक्ष में जीव निरंजन निराकार सचिदानंद प्रात्मा स्वरूप में सदा मग्न रहता है। वहाँ किसी पुद्गल का संग नहीं रहता। अतः मोक्ष का सुख सर्वदा शाश्वत सहज स्वाभाविक अनंत और सम्पूर्ण है, जिसमें दुःख का अंशमात्र भी नहीं है। इससे "निर्वाण-मोक्ष है' इस प्रकार का कथन सर्वदा सिद्ध ही है तथा उसका मार्ग उपादेय है।"
प्रभु के इस प्रकार युक्तियुक्त सुवचनों से अपनी सम्पूर्ण शंका के निर्मूल होने पर प्रभास पण्डित ने भी "निर्वाण-मोक्ष है" इस सत्य कथन का निश्चय अपने अन्तःकरण में किया। तत्काल लघुवय वाले श्रीप्रभास
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