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पर्यन्त यावज्जीव यज्ञ क्रिया करे, तो इससे यह सिद्ध होता है कि यज्ञ के कर्म को भोगने के लिये पुनर्भव होगा ही, फिर मोक्ष नहीं होता। किन्तु इसके लिये वेद में पुनः अन्य पद भी हैं कि-"ब्रह्मणी वेदितव्ये, परमपरं च, तत्र परं सत्यज्ञानं, अनन्तरं ब्रह्म” इति । यह वेदवाक्य मोक्ष की विद्यमानता को प्रतिपादित करता है। इससे यह व्यजित होता है कि स्वर्ग का इच्छुक जीवन पर्यन्त अग्निहोत्र करे तथा 'वा' अर्थापत्ति से मोक्षार्थी स्वर्ग की इच्छा छोड़कर परब्रह्म-मोक्ष को उपासना करे।
यहाँ प्रभास पुनः शंका करते हुए पूछते हैं कि प्रभो ! इस अनादि संसार का विनाश कैसे होता है ? "यह प्रश्न ही मूल रूप से भ्रमात्मक है, क्योंकि द्रव्य रूप से अनादि का विनाश नहीं होता। किन्तु पर्याय से अनादि का विनाश होता है। जैसे कि मनुष्य का वंश अनादि है । पिता के बिना पुत्र की उत्पत्ति नहीं होती। फिर भी प्रत्येक के पुत्र हो ही, ऐसा नहीं है। किसी का वश बिना पुत्र के अटक भी जाता है। तो इसी तरह संसार भी संसरणशील है, अनादि है। पुनः 'अभव्य' और 'जातिभव्य' बिना जो है उनका संसार कभी अटकने वाला नही है। किन्तु भव्यों के काल, स्वभाव, पुरुषार्थ, कर्म और
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