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________________ परन्तु हे प्रभास ! तेरा यह सन्देह-संशय अयुक्त है। क्योंकि "जरामर्यं वा यदग्निहोत्रम्" इन वेदपदों का अर्थ तुमने बराबर नहीं समझा है। इन वेदपदों में जो 'वा' शब्द है वह अपि यानी 'पण' अर्थ वाला है। इन वेदपदों का अर्थ ऐसा होता है कि 'यावज्जीव' अर्थात् जीवन पर्यन्त भी अग्निहोत्र होम करना। अर्थात् जो कोई स्वर्ग का अर्थी हो उसे जीवन पर्यन्त भी अग्निहोत्र करना चाहिए और जो कोई मोक्ष का अर्थी हो उसे अग्निहोत्र छोड़कर मोक्षसाधक क्रिया भी करनी चाहिए। किन्तु प्रत्येक प्राणी को अग्निहोत्र ही करना, ऐसा नियम नहीं है। इस तरह निर्वाण-मोक्षसाधक अनुष्ठान-क्रिया करने का काल भी वेद के इन पदों ने कहा ही है। इससे निर्वाण यानी मोक्ष ही है। शुद्ध ज्ञान, दर्शन और चारित्र द्वारा कर्म का क्षय होता है तथा प्रात्मा के कर्म का क्षय होना यही मोक्ष है। सारांश यह है कि “निर्वाण-मोक्ष है कि नहीं ?" इस सन्देह-संशय वाले मात्र सोलह वर्ष के बालपण्डित प्रभास को सर्वज्ञ प्रभु श्री महावीर परमात्मा ने कहा कि "हे प्रभास ! "जरामयं वा यदग्निहोत्रम्" इन वेदपदों का अर्थ तुम यह करते हो कि जरा-वृद्धत्व और मरण
SR No.002334
Book TitleGandharwad Kavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram
Publication Year1987
Total Pages442
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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