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________________ सारांश यह है कि अग्निहोत्र की क्रिया मुक्ति का कारण नहीं बनती और यह क्रिया सर्वदा करने के लिये प्रतिपादित की गई है। इससे मोक्षसाधक क्रिया करने का काल ही जीवन में शेष न रहा। इससे मोक्ष का अभाव सिद्ध होता है। इसलिये तुझे लगता है कि मोक्ष नहीं है। पुनः वेद में आए हुए-"दुब्रह्मणी वेदितव्ये, परमपरं च, तत्र परं सत्यज्ञानं, अनन्तरं ब्रह्म ति"। 'T ब्रह्मणी वेदितव्ये'-दो ब्रह्म जानना, 'परम् अपरं च'-एक पर और दूसरा अपर। 'तत्र परं सत्यज्ञानम्'-उनमें पर सत्य है, 'अनन्तरं ब्रह्मति' और अनन्तर ब्रह्म यानी मोक्ष है। अर्थात् दो ब्रह्म जानने योग्य हैं। उसमें एक पर और एक अपर। सत्यज्ञान यह परब्रह्म है और वह पीछे का अपर ब्रह्म है। ऐसे अर्थ वाले इन वेदपदों से तेरे अन्तःकरण में 'मोक्ष है' ऐसी भी प्रतोति होती है तथा "सैषा गुहा दुःखगाहा" अर्थात् संसार में आसक्त ऐसे प्राणियों को यह मोक्ष रूपी गुफा दुःखगाह है। अर्थात् प्रवेश न हो सके, ऐसी है। इत्यादि वेदपदों से मोक्ष की सत्ता व्यक्त होती है। इस तरह परस्पर विरुद्ध भासते हुए वेदपदों से तुम सन्देह-संशय में पड़े हो कि 'मोक्ष है कि नहीं?' ( १३५ )
SR No.002334
Book TitleGandharwad Kavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram
Publication Year1987
Total Pages442
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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