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________________ "हे प्रभास ! तेरे अन्तःकरण में यह सन्देह-संशय है कि-"निर्वारग यानी मोक्ष है कि नहीं?" इस प्रकार का सन्देह-संशय तुम को परस्पर विरुद्ध भासते हुए वेदपदों से हुआ है । “जरामयं वा यदग्निहोत्रम् ।" उक्त वेदपदों से तू जानता है कि-"मोक्ष नहीं है ।" इन वेदपदों का अर्थ तुम इस प्रकार से करते हो कि जो अग्निहोत्र होम व 'जरामयं' यानी यावज्जीव सर्वदा करने योग्य है अर्थात् अग्निहोत्र की क्रिया जीवन पर्यंत करनी। इससे 'अग्निहोत्र' की नित्य कर्त्तव्यता सिद्ध की है । फिर अग्निहोत्र की क्रिया निर्वाण-मोक्ष का कारण नहीं बन सकती। कारण कि वह क्रिया 'शबल' है। अर्थात् कितनेक जीवों के वध का कारण और कितनेक जीवों के उपकार का कारण होने से दोष मिश्रित है। इसलिये अग्निहोत्र करने वाले को स्वर्ग मिलता है, मोक्ष नहीं मिल सकता। इस तरह सिर्फ स्वर्गरूप ही फल देने वाली क्रिया को जीवन पर्यन्त करने का कहने से मोक्षरूप फल देने वाली क्रिया करने का काल नहीं रहता। क्योंकि जीवन भर अग्निहोत्र करने वाले को ऐसा कौनसा काल बाकी रहा कि जिस काल में वह मोक्ष के हेतुभूत क्रिया कर सके ? इससे मोक्ष साधने वाली क्रिया का काल नहीं कहने से ज्ञात होता है कि मोक्ष नहीं है । ( १३४ )
SR No.002334
Book TitleGandharwad Kavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram
Publication Year1987
Total Pages442
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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