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________________ रहता है। उसे "न प्रेत्यसंज्ञाऽस्ति" अर्थात् इस तरह पूर्व के उपयोग रूप में प्रात्मा न रहने से वह पूर्व के उपयोग रूप संज्ञा नहीं रहती है। इन वेदपदों से घटादि भूतों की अपेक्षा प्रात्मा के उपयोग की उत्पत्ति और विनाश सूचित होता है, किन्तु इससे भूतों में से चैतन्य उत्पन्न होता है, ऐसा नहीं समझना। चैतन्य भूतों का धर्म नहीं है, किन्तु प्रात्मा का ही धर्म है। प्रात्मा द्रव्य रूप में नित्य है और वह आत्मा परभव-परलोक में जा सकता है तथा परभव-परलोक से पा सकता है। आत्माएँ अनन्त हैं। जिस आत्मा ने जैसे कार्य किये हैं उसे तदनुसार ही गति मिलती है। सारांश यह है कि “परभव-परलोक है कि नहीं ?" इस प्रकार के सन्देह-संशय वाले श्री मेतार्य विप्र-पण्डित को "विज्ञानघन एव" इन वेदपदों का सच्चा अर्थ समझाते हुए सर्वज्ञ विभु श्री महावीर भगवान ने कहा कि-'हे मेतार्य ! बालक को जन्मते ही स्तनपान की इच्छा होती है और बिना सिखाये वह स्तनपान करता है, यह सभी जानते हैं। वासना के बिना इच्छा नहीं होती तथा अभ्यास के बिना क्रिया पाती नहीं। अत: वासना तथा क्रिया का शिक्षण जीव को पूर्व भव में ही प्राप्त हो चुका ( १३० )
SR No.002334
Book TitleGandharwad Kavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram
Publication Year1987
Total Pages442
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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