________________
क्योंकि जो परभव-परलोक नहीं होता तो अग्निहोत्र करने वाला स्वर्ग में किस तरह जा सकता? इस प्रकार परस्पर विरुद्ध भासते हुए वेदपदों से तू अपने अन्तःकरण में सन्देह-संशय में पड़ा है कि 'परभव-परलोक है कि नहीं ? परन्तु हे मेतार्य ! यह तेरा सन्देह संशय अयुक्त है। कारण कि इन वेदपदों का अर्थ तू बराबर समझा नहीं है।'
ऐसा कह कर इन वेदपदों का सत्य-वास्तविक अर्थ जिस तरह श्री इन्द्रभूति को समझाया था, उसी तरह इधर भी प्रभु ने समझाया कि-"विज्ञानघन एव" अर्थात् ज्ञान एवं दर्शन का उपयोग, वह विज्ञान कहलाता है। उसी विज्ञान का समुदाय रूप आत्मा "एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय" ज्ञेयपने अर्थात् जानने योग्यपने को प्राप्त हुए इन पृथ्वी आदि भूतों से या घट-पट इत्यादि भूतों के विकार से यह पृथ्वी है, यह घट-घड़ा है, यह पट-वस्त्र है' इत्यादि प्रकारे उन-उन भूतों के उपयोग रूप में उत्पन्न होकर "तान्येवाऽनुविनश्यति" अर्थात् उन घट इत्यादि भूतों के ज्ञेयपने का अभाव हो जाने के बाद ही आत्मा भी उन्हीं के उपयोग रूप में विनाश को प्राप्त होता है और अन्य पदार्थ के उपयोग रूप में उत्पन्न होता है अथवा सामान्य स्वरूप में
( १२९ )