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"हे मेतार्य ? तेरे हृदय में यह सन्देह-संशय है कि"परभव-परलोक है कि नहीं ?" इस प्रकार का सन्देहसंशय तुम को परस्पर विरुद्ध भासते हुए वेदपदों से हुआ है। "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवाऽनु विनश्यति, न प्रेत्यसंज्ञाऽस्ति ।" उक्त वेदपदों से तू जानता है कि 'परभव-परलोक नहीं है।' इन वेदपदों का अर्थ तुम इस प्रकार से करते हो कि विज्ञान का समुदाय ही पृथिव्यादि पाँच भूतों में से उत्पन्न होकर, पुनः उन भूतों में ही विलय पा जाता है। इसलिये परभव यानी परलोक की संज्ञा हो नहीं है। अर्थात् पृथिव्यादि पाँच भूतों में से चैतन्य उत्पन्न होता है और जब पाँच भूत विनष्ट होते हैं तब चैतन्य भी जल में परपोटा की भाँति उन भूतों में लय हो जाता है। इस तरह चैतन्य यह भूतों का धर्म है तथा भूतों से नष्ट होते ही वह चैतन्य भी नष्ट हो जाता है। उसे अन्य-दूसरी गति में जाने रूप परभव-परलोक नहीं है परन्तु पुन: "स्वर्गकामोऽग्निहोत्रं जुहुयात्" अर्थात् स्वर्ग की अभिलाषा करने वाला व्यक्ति अग्निहोत्र होम करे तथा "नारको वै एष जायते यः शूद्रान्नमश्नाति" अर्थात् जो विप्र-ब्राह्मण शूद्र का अन्न खाता है वह नारकी होता है। इत्यादि वेदपदों से परभव-परलोक की सत्ता व्यक्त होती है ।
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