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किया । उनके तीन सौ छात्रों ने भी उनके साथ में ही दीक्षित होने का विचार किया ।
छिन्न सन्देह - संशय वाले ऐसे नवें श्री अचलभ्राता अपने तीन सौ छात्रों के साथ प्रभु के पास प्रव्रजित - दीक्षित हुए । दीक्षा पाने के साथ ही उन्होंने भगवान की तीन प्रदक्षिणा पूर्वक 'भगवन् ! किं तत्त्वम् ?' इस प्रकार तीन बार पूछा । भगवन्त ने भी क्रमशः " उपन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा" अर्थात् - 'सर्व पदार्थ वर्त्तमान पर्याय रूप में उत्पन्न होते हैं, पूर्व के पर्याय रूप से नष्ट होते हैं तथा मूल द्रव्य रूप में ध्रुव - नित्य रहते हैं । ऐसा कहा । इस तरह सर्वज्ञ प्रभु के मुँह से 'त्रिपदी ' सुनकर गणधर श्री अचल भ्राता ने एक ही अन्तर्मुहूर्त्त में सम्पूर्णपने 'श्रीद्वादशाङ्गी' की अलौकिक प्रतिसुन्दर रचना की ।
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॥ इति श्रीगरणधरवादे नौवें गरणधर श्री अचलभ्राता का संक्षिप्त वर्णन |
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