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या तो शुभ होगा या अशुभ होगा, शुभाशुभ हो ही नहीं
सकता।"
पुनः सन्देह-संशय व्यक्त करते हुए बोले कि-"यदि पुण्य और पाप दोनों ही स्वतन्त्र हैं तो दोनों का लक्षण क्या है ?" प्रभु ने कहा कि-"जिसका विपाक शुभ हो वह पुण्य है तथा जिसका विपाक अशुभ हो, वह पाप है। पुण्य और पाप दोनों ही पुद्गल हैं। जैसे कोई नग्न अंग-शरीर में तेल मर्दनकर बैठ जाय तो उस तेल के प्रमाण से ही शरीर में रजकण चिपकेंगे। उसी प्रकार से स्निग्ध बने हुए जीव पर राग-द्वषादि पाप-पुण्य कर्मरूपी रज चिपकती है।"
. इस तरह सर्वज्ञ विभु श्रीमहावीर स्वामी के मुंह से "पुरुष एवेदं ग्निं सर्व." इन वेदपदों का सच्चा अर्थ पाकर तथा 'पुण्य-पाप हैं' ऐसे प्रभु के युक्तिसंगत सुवचन सुनकर नवमे श्री अचलभ्राता विप्र पण्डित का "पुण्य-पाप है कि नहीं ?" इस विषय का सन्देह-संशय नष्ट हुआ। "पुण्य-पाप हैं" इस सत्य कथन का निश्चय अपने अन्तःकरण में निश्चित हुा । तत्काल श्री अचलभ्राता ने अपने सर्वज्ञपने के अभिमान को तिलांजलि दे दी और सच्चे सर्वज्ञ विभु श्रीमहावीर भगवान का शिष्य बनने का निर्णय
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