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________________ दोनों की सत्ता सिद्ध हो जाती है। तुम कर्म-क्रिया को विद्यमान तो मानते ही हो फिर यदि कर्म विद्यमान है तो वह सत् है या असत् ? पुण्य है या पाप ? शुभ है या अशुभ ? इन दोनों का योग ही संसार है। इन दोनों में से एक भी न रहे तो संसार अर्थात् 'संसरति पुण्ये वा पापे' और 'संसरणात् मोक्षः' कोई एक भी न रहेगा।" श्री अचलभ्राता विप्र को इस विषय में पुन: सन्देह-संशय होता है और अपनी जिज्ञासा पूर्ण करने हेतु वे पूछते हैं कि "हे प्रभो! पाप का जैसे-जैसे क्षय होता है वैसे-वैसे सुख प्राप्त होता है। पाप का सर्वथा विनाश ही मोक्ष है । यदि ऐसा समझ लिया जाय तो क्या हरकत है ? पुण्य की पृथक् सत्ता मानने की आवश्यकता ही क्या है ?" प्रभु ने कहा "हे अचलभ्राता ! पुण्य का परिणाम सुख है और पाप का परिणाम दुःख है। अतः एक ही वस्तु के दो परिणाम सोचना पूर्णतः अव्यावहारिक है। पाप और पुण्य दोनों ही समवाय स्थिति में रह नहीं सकते । जैसे अमृत और जहर, दूध और दही। दोनों ही समवाय स्थिति में पृथक्-पृथक् सत्ता धारण नहीं कर सकते ।” श्री अचलभ्राता बोले-"अब मुझे ज्ञात हो गया है कि पुण्य और पाप ये दोनों पृथक्-पृथक् सत्ता वाले होते हैं और इन दोनों का ही हेतु कर्म है और कर्म का हेतु योग है। यह योग ( १२४ )
SR No.002334
Book TitleGandharwad Kavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram
Publication Year1987
Total Pages442
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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