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गई है, किन्तु इससे पुण्य-पाप नहीं है, ऐसा समझने का नहीं। जैसे "विष्णुमयं जगत" इत्यादि वेदपदों में समस्त विश्व को विष्ण मय कहा है; परन्तु ये वेदपद विष्णु की महिमा का प्रतिपादन करने वाले हैं। इससे अन्य वस्तुओं का अभाव समझने का नहीं; वैसे जो किया और जो होगा वे सभी प्रात्मा ही हैं, यह आत्मा की महिमा बताई है। उससे आत्मा बिना पुण्य-पाप नहीं है' ऐसा समझने का नहीं। फिर प्रत्येक प्राणी जो सुख और दुःख का अनुभव करते हैं, उसका कोई कारण तो अवश्य होना ही चाहिये। क्योंकि कारण बिना कार्य सम्भवता नहीं है। वह कारण पुण्य और पाप है।
. सारांश यही है कि-'हे अचलभ्राता ! "पुरुष एवेदं ग्निं सर्व०" इस वेदवाक्य को तुम बराबर समझे नहीं हो । तुमको भी इसी पद से श्री अग्निभूति की भाँति सन्देहसंशय हुअा है, जो योग्य नहीं है।" जिस तरह श्री अग्निभूति को इन वेदवाक्यों का अर्थ युक्ति से समझाया था, उसी प्रकार इन्हें भी युक्ति से समझाते हुए भगवान बोले"पुण्यः पुण्येन कर्मणा, पापः पापेन कर्मणा" इति । इन वेदपदों से यह सिद्ध होता है कि-'पुण्यकर्म से पुण्य और पापकर्म से पाप प्राप्त होता है।' इससे पुण्य तथा पाप
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