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हे अचलभ्राता ! तेरे अन्तःकरण में यह सन्देह संशय है कि-"पुण्य (और पाप) है कि नहीं ?" यह सन्देह-संशय तुझे परस्पर विरुद्ध भासते हुए वेदपदों से हुआ है। "पुरुष एवेदं ग्नि सर्व यद् भूतं यच्च भाव्यम् ।" उक्त वेदपदों से तू जानता है कि-पुण्य (और पाप) नहीं है। इन वेदपदों का अर्थ तुम इस प्रकार करते हो कि यह प्रत्यक्ष दिखाता चेतन-अचेतन स्वरूप जो होगा वे सर्व पुरुष ही हैं अर्थात् प्रात्मा पुण्य-पाप बिना नहीं है । फिर "पुण्यःपुण्येन कर्मणा, पापः पापेन कर्मणा" इति । 'पुण्यकर्म यानी शुभकर्म द्वारा प्राणी पुण्यशाली होता है
और पापकर्म यानी अशुभकर्म द्वारा प्राणी पापी होता है ।' इन वेदपदों से पुण्य-पाप की सत्ता ज्ञात होती है।
इस तरह परस्पर विरुद्ध भासते हुए वेदपदों से तुम सन्देह-संशय में पड़े हो कि, 'पुण्य-पाप हैं कि नहीं ? परन्तु यह तेरा सन्देह-संशय प्रयुक्त है। क्योंकि-"पुरुष एवेदं ग्नि सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम् ।" इसका सच्चा अर्थ इस प्रकार है--'यह प्रत्यक्ष दिखाता हुआ चेतनस्वरूप जो भूतकाल में हुआ और भविष्यकाल में होगा, वे सर्व आत्मा ही हैं।' इन वेदपदों में आत्मा की स्तुति की
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