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हैं, पूर्व के पर्याय रूप से नष्ट होते हैं तथा मूल द्रव्य रूप में
ध्र व-नित्य रहते हैं ऐसा उपदेश दिया । __इस तरह सर्वज्ञ विभु के वदन-मुह से 'त्रिपदी' सुनकर गणधर श्री अकम्पित ने एक ही अन्तर्मुहूर्त में सम्पूर्णपने 'श्रीद्वादशाङ्गी' की अत्युत्तम-सुन्दर रचना की।
॥ इति श्री गणधरवावे अष्टम गणधर श्री अकम्पित का संक्षिप्त वर्णन ॥
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