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है। क्योंकि उसका ज्ञान सीधा प्रात्मा को ही होता है। जैसे-गवाक्ष स्वयं तो नहीं देख सकता, किन्तु गवाक्ष से सब कुछ देखा जा सकता है; इत्यादि ।
इस तरह सर्वज्ञ विभु श्री महावीर भगवान के मुंह से "न ह वै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ति" इन वेदपदों का सही अर्थ पाकर तथा 'नारकी है' ऐसे प्रभु के युक्तिसंगत सुवचन सुनकर आठवें श्री अकम्पित विप्र-पण्डित का "नारक है कि नहीं ?" इस विषय का सन्देह-संशय नष्ट हुआ । "नारक है" इस सत्य कथन का निश्चय उनके अन्तःकरण में निश्चित हुआ। तत्काल श्री अकम्पित ने अपने सर्वज्ञपने के अभिमान को तिलांजलि दे दी और सच्चे सर्वज्ञ विभु श्री महावीर भगवान का शिष्य बनने का निर्णय किया। उनके साथ में आये हुए तीन सौ शिष्यों ने भी उन्हीं के साथ दीक्षित होने की तैयारी की।
छिन्न सन्देह-संशय वाले ऐसे आठवें श्री अकम्पित अपने तीन सौ छात्रों के साथ प्रभु के पास दीक्षित हुए । दीक्षा पाने के साथ ही उन्होंने भगवान को तीन प्रदक्षिणापूर्वक 'भगवन् ! कि तत्त्वम् ?' इस प्रकार तीन बार पूछा। भगवन्त ने भी क्रमश: "उपन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा" अर्थात्-'सर्व पदार्थ वर्तमान पर्याय रूप में उत्पन्न होते
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