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________________ नहीं ?" क्योंकि "न ह वै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ति" यह प्रथम वेदवाक्य भी नारकी के विषय में निषेधात्मक अर्थ व्यक्त नहीं करता, इससे यह अर्थ व्यक्त होता है कि नारकी मेरुपर्वतादि के समान शाश्वत नहीं रहते हैं। जो प्राणी उत्कृष्ट पाप उपार्जन करता है, वह मृत्यु पाकर परभव में नारकी होता है। पुनः उस नारकी से मृत्यु पाकर दूसरे भव में वही फिर नारकी नहीं बनता। अतः सर्वथा नारकी का अभाव नहीं है। अति पाप को भोगने के लिये नारकीस्थिति माननी ही होगी। इस लोक में प्राप्त पुरुष के प्रत्यक्ष को स्व प्रत्यक्ष जैसा ही स्वीकार किया जाता है। जैसे सिंह आदि का प्रत्यक्ष सभी को नहीं होता, फिर भी अप्रत्यक्ष नहीं है। तुम स्वयं का ही विचार करो, क्या तुमने सारे देश, नगर, ग्राम, नदी, नद, काल इत्यादि सभी देखे हैं ? फिर वे दूसरों को प्रत्यक्ष हैं या हुए हैं। इसलिये हमें भी स्वीकार्य हैं। इसी प्रकार नारकी मुझे प्रत्यक्ष है तो तुम को भी प्रत्यक्ष ही है। वास्तव में, इन्द्रियप्रत्यक्ष सब सच नहीं है। यह एक प्रकार का भ्रम है। इन्द्रियप्रत्यक्ष तो ऊपर से ही प्रत्यक्ष कहा जाता है। सच्चा प्रत्यक्ष तो अतीन्द्रिय ही ( ११८ )
SR No.002334
Book TitleGandharwad Kavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram
Publication Year1987
Total Pages442
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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