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में या मनुष्यगति में भी भोग सकते हैं। क्योंकि तिर्यंचगति में अनेक तिर्यंचों को तथा मनुष्यगति में अनेक मनुष्यों को अत्यन्त दुःखी देखते हैं; किन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है। कारण कि तियंचगति और मनुष्यगति में तीव्र और निरन्तर दुःख नहीं होता। कदाचित् दुःख विशेष हो तो भी अल्प सुख होता है। फिर नारकियों के जैसा तीव्र दुःख कहा है वैसा दुःख तिर्यंचगति में और मनुष्यगति में नहीं होता। उत्कृष्ट पाप का फल तो तीव्र और निरन्तर दुःख भोगने का होता है। इसलिये मानना चाहिये कि उत्कृष्ट पाप करने वाला जीव मृत्यु पाकर नारकी होकर तीव्र और निरन्तर दुःख भोगता है।
. सारांश यह है कि "न ह वै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ति" इत्यादि वेदपदों से तुमको भ्रम हुआ है कि 'नारकी नहीं है।' अर्थात् नारकी की सत्ता नहीं होती। दूसरी ओर "नारको वै एष जायते यः शूद्रानं प्रश्नाति" इत्यादि वेदपदों से यह स्पष्ट होता कि 'जो शूद्र के अन्न का भक्षण करता है वह नारकी होता है। अर्थात्-शूद्र के अन्न को खाने वाला ब्राह्मण मृत्यु पाकर नरक में नारकी रूप में उत्पन्न होता है। इस प्रकार परस्पर वेदपदों में विरोध आने से तुमको सन्देह-संशय हुआ है कि-"नारकी है कि
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