________________
संशय में पड़े हो कि-'नारकी है कि नहीं ?'. परन्तु हे अकम्पित ! यह तेरा सन्देह-संशय अयुक्त है, क्योंकि-"न ह वै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ति ।" इन वेदपदों का अर्थ जो तुम ने किया है, वह वास्तविक नहीं है। उसका सही अर्थ इस प्रकार है___'परलोक में नरक में नारकी नहीं हैं, अर्थात् परलोक में नारकी मेरुपर्वतादिक की भाँति शाश्वता नहीं हैं, किन्तु 'जो जीव उत्कृष्ट पाप को उपार्जन करता है वह मृत्यु पाकर के परभव में नारकी होता है ।' अथवा 'नारकी पुनः अनन्तर नारकीपने उत्पन्न नहीं होता है ।' . यह वेदपदों का अर्थ है, परन्तु 'नारकी नहीं है' ऐसा वेदपद नहीं कहते हैं। जैसे देव कारणवशाद् इधर आते हैं वैसे नारकी परवशपना होने से इधर नहीं आ सकते। किन्तु क्षायिकज्ञान वाले तो नारकियों को अपने ज्ञान से प्रत्यक्ष देखते हैं। छद्मस्थों को अनुमान से नारकी की प्रतोति हो सकती है। जैसे जीव-प्राणी उत्कृष्ट पुण्य का फल अनुत्तरदेवपने उत्पन्न होकर भोगता है, वैसे उत्कृष्ट पाप करने वाले जीव को उत्कृष्ट पाप का फल भी अवश्य ही भोगना पड़ता है तथा वह तीव्र और निरन्तर दुःख भोगने रूप फल को नारकीपने उत्पन्न होकर भोगता है। कदाचित् तुम ऐसा कहो कि उत्कृष्ट पाप का फल तिर्यंचगति
( ११६ )