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" हे अकम्पित ! तेरे हृदय में यह सन्देह - संशय है कि- " नारकी है कि नहीं ?" इस प्रकार का सन्देह संशय तुम को परस्पर विरुद्ध भासते हुए वेदपदों से हुआ है । " न ह वै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ति " इति । उक्त वेदपदों से तू जानता है कि - ' नारकी नहीं है ।' इन वेदपदों का अर्थ तुम इस प्रकार से करते हो कि प्रेत्य अर्थात् परलोक
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में नरक में नारकी नहीं हैं । अर्थात् कोई भी प्राणी मृत्यु पाकर परभव में नारकी होते नहीं । फिर तुम मानते हो कि देव तो चन्द्र-सूर्यादि प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं । मनुष्य किसी देव की 'मानता' मानते हैं, तो कितनेक को उस मानी हुई मानता का फल मिलता हुआ देखा जा सकता है । इस तरह मानतादिक का फल दिखने से तथा अनुमान से भी प्रतीति होती है कि देव हैं । परन्तु नारकी न तो प्रत्यक्ष से और न अनुमान से प्रतीति में आते हैं । इसलिये नारकी नहीं हैं । फिर "नारको वै एष जायते यः शूद्रान्नमश्नाति " इति । श्रर्थात् - 'जो द्विजब्राह्मण शूद्र का अन्न खाता है, वह नारकी होता है ।' इन वेदपदों से नारकी की सत्ता भी ज्ञात होती है । क्योंकि - 'जो नारकी न होते तो शूद्र का अन्न खाने वाला विप्र-ब्राह्मण नारकी होता है' ऐसा किस तरह कह सकते ? इस तरह परस्पर विरुद्ध भासते हुए वेदपदों से तुम सन्देह
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